उन दिनों आचरण में नितान्त संकीर्ण साम्प्रदायिक रहते हुए भी वोट के लिए तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की खाल ओढ़ना लोग नहीं सीख पाए थे। अब्दुर्रहीम खानखाना सम्राट अकबर का निमंत्रण लेकर तुलसी तक गए। यह निमंत्रण तत्कालीन एशिया की सबसे बड़ी और शक्तिशाली सल्तनत की ओर से भेजा गया था, जबकि सम्राट की इच्छा उसकी आज्ञा ही कानून थी। असंग तुलसी ने सविनय दृढ़ अस्वीकार दिया-
हौं तो चाकर राम को पटो लिखो दरबार,
तुलसी अब का होंयगे नर के मनसबदार।
और कोई होता तो वह इसे निजी व्यक्तिगत मान-सम्मान का प्रश्न बनाता। उसका अहंकार विकृत कुरूप होकर उभर आता, परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। महामना रहीम ने इस विनम्र दृढ़ अस्वीकृति को अपनी प्रणति दी। हम में, हमारी सारस्वत बिरादरी में कोई ऐसा है तो, जो बड़े से बड़े ऐश्वर्य वैभव के प्रलोभन को सहज ही अनायास निरभिमान होकर ठोकर मार सकता है। अपने आराध्य से इतर किसी भी सिंहासन की सविनय अवज्ञा दे सकता है।
तुलसी के पास एक विधवा ब्राह्मणी अपनी बेटी के विवाह के लिए वांछित धन की कामना से आई। उस समय तक तुलसी सिद्ध सन्त के रूप में विख्यात हो चुके थे। तुलसी के पास रामरतन अथवा राम रसायन के अलावा धन कहां? वे तो ठहरे निहंग वैरागी, परंतु उस भरोसे का क्या हो, जिसके चलते वह ब्राह्मणी उनके पास आई थी? उसकी तो रक्षा करनी ही होगी। तुलसी ने एक पुरजा देकर ब्राह्मणी को खानखाना के पास भेज दिया। पुरजे में लिखा था, 'सुरतिय, नरतिय, नागतिय, अस चाहत सब कोय।' उनका आशय था कि प्रत्येक नारी यह चाहती है कि उसकी बेटी का विवाह भले घर में हो, उसे सुपात्र मिले और वह सुखी रहे। वे तुलसी का कहा कुछ कर सकेंगे, इसकी कल्पना मात्र से खानखाना निहाल हो गए। कहना न होगा कि ब्राह्मणी को उसकी आवश्यकता से कहीं अधिक धन मिला। अब्दुर्रहीम खानखाना ने उसी पुरजे पर दूसरी पंक्ति लिखकर गोस्वामी तुलसीदास जी को भिजवा दी -
सुरतिय, नरतिय, नागतिय अस चाहत सब कोय,
गोद लिए हुलसी फिरे तुलसी सो सुत होय।
खानखाना की पंक्ति से सारे संदर्भ की संवेदना ही बदल गई। इसी संदर्भ में आधुनिक रसखान की उपाधि से अभिनन्दित जनाब अब्दुलरशीद 'रसदी' साहब की निम्नांकित पंक्तियां द्रष्टव्य हैं -
हुलसी तुलसी फिरत है, हुलसी तुलसी पाय,
हुलसी तुलसी जगत मंह, और कौन हैं माय?
कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने बरवै रामायण भी खानखाना की प्रेरणा और आग्रह से रची थी। मुगल सम्राट अकबर की सेना का एक सिपाही गौने के लिए छुट्टी लेकर गया था। मानव सुलभ सहज दुर्बलता के अधीन, स्वीकृत अवकाश की अवधि से उसकी अनुपस्थिति अधिक हो गई। सैनिक अनुशासन के अंतर्गत इस अनुशासनहीनता के लिए उसे कितना कठोर दंड मिल सकता है, इसी आशंका से वह बिछुड़न की उदासी के अतिरिक्त और भी उदास हो गया। उसकी नवपरिणीता वधू भी कवयित्री है। वह पति को एक पुरजा देते हुए कहती है कि वह सीधे काम पर न जाकर खानखाना से मिलकर वह पुरजा उन्हें दे। रहीम ने वह पुरजा पढ़ा -
'नेह प्रेम को बिरवा रोप्यो जतन लगाय,
सीचन की सुधि लीजियो देखेहु मुरझि न जाय।'
अब्दुर्रहीम खानखाना सर से पांव तक डबडबा गए। उन्होंने बादशाह से सिफारिश कर न केवल उसकी खता माफ करायी, वरन और छह माह का अवकाश दिला दिया। उस सैनिक को उन्होंने ढेर सा उपहार दिया, 'मेरी बेटी, अपनी बहू को यह भेंट देना और यह पुरजा गोस्वामी जी को देते हुए कहना, रहीम का यह आग्रह है, आप इस छंद में पुन: रामकथा रचें।' रहीम मानस के सन्दर्भ में कहते हैं
राम चरित मानस विमल, सन्तन जीवन प्रान,
हिन्दुवान को वेद सम, जमनहि प्रगट कुरान।
चित्रकूट में तुलसी और रहीम सहयात्री हैं, इस प्रसंग में अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हैं। यथा- तुलसी का प्रश्न एक पंक्ति में और रहीम का उत्तर दोहे की दूसरी में, जरा देखें-
धूर उड़ावत सिर धरत कहु रहीम केहि काज?
जेहि रज मुनि पत्नी तरी, सो ढूंढत गजराज।
स्वयं भगवान राम वनवास अवधि में चित्रकूट गए, वाराणसी में सताए जाने पर गोस्वामी तुलसीदास जी चित्रकूट गए और अपने अंतिम दिनों में, जब मुसीबत के मारे अब्दुर्रहीम खानखाना चित्रकूट पहुंचे तो उन्होंने कहा-
चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेस।
जा पर विपदा परत है, सो आवत यही देस।
Source- Google and Wikipedia